शिल्प कर्म ही यज्ञ कर्म है
ब्राह्मण के षट्कर्मों में यज्ञ करना एवं यज्ञ कराना प्रमुख कर्म है।
यज्ञ और शिल्प दोनों एक ही हैं क्योंकि वेदों से लेकर गीता और पुराण में सम्पूर्ण साहित्य यही प्रमाणित कर रहा है कि शिल्प कर्म ही यज्ञ कर्म है। अतः शिल्प कर्म करना ब्राह्मणत्व प्राप्ति के लिए आवश्यक है।इसलिए महृषि दयानन्द जी ने कहा है कि यदि शिल्पविद्या ब्राह्मण नही सीखेगा तो क्या सूद्र इस विज्ञान में सफल होगा।
गीता में अध्याय ३७ में लिखा है कि-
ज्ञानविज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।
अध्याय ३७ में ही युधिष्ठिर संवाद में लिखा है-
शिल्पमध्ययनं नामवृतब्राह्मणलक्षणम्।
इसी प्रकार भविष्य पुराण अध्याय २४ में ब्राह्मणों का कर्म वेदाध्ययन एवं शिल्प कर्म स्पष्ट लिखा है-
अग्नि पुराण में अध्याय २४१ में लिखा है शिल्पी ब्राह्मण से ही यज्ञ की ईंटों का चयन करावें। बाल्मीकि रामायण के अनुसार दशरथ राजा के यज्ञ में ईंटों से लेकर समस्त कार्य शिल्पी ब्राह्मणों ने ही किये।
गार्गेयागम में लिखा है कि यज्ञ में शिल्पी ब्राह्मणों ने वेदोक्त पुण्याहवाचन किया,वेद मंत्रों से यज्ञ किया,मूर्ति को पंचामृत स्नान कराया कलश स्थापन कराया इस प्रकार शिल्पी पूर्ण विधि से यज्ञ एवं मूर्ति प्रतिष्ठा कराते थे। यहां यह सिद्ध हो गया कि ब्राह्मणत्व प्राप्ति के लिए शिल्प सीखना आवश्यक था और शिल्पी ब्राह्मण ही सब श्रेष्ठ कर्मो को करने का अधिकार रखता था। शिल्प कर्म में दक्ष होना ब्राह्मणत्व से भी बढ़कर था। ब्रह्मर्षि बनने के लिए ब्रह्मा के समान शिल्प विज्ञान में दक्ष होना अनिवार्य था शिल्प की दक्षता के बिना कोई योगी एवं विद्वान भी ऋषि कहलाने का अधिकारी नही होता था।विश्वामित्र ने आने प्रयत्न किए परन्तु फिर भी महर्षि वशिष्ठ ने विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि नही माना जब विश्वामित्र ने शिल्पविज्ञान से नूतन लोकों की सृष्टि की तब वशिष्ठ ने विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि कहकर संबोधित किया।
इससे स्पष्ट होता है कि प्राचीन तथा वैदिक काल के समस्त ऋषि शिल्प कर्म के मर्मज्ञ थे।
वेदमन्त्रों में शिल्पियों को अत्यधिक सम्मान प्रदान करते हुए उनसे शिल्प विज्ञान शास्त्र पढ़ने का विधान किया है-
देव्या होतारा प्रथमा सुवाचा मिमाना यज्ञ यज्ञम् मनुषो यजध्यै।
परचोदयन्ता विदथेषु कारू प्राचीनँ ज्योति: प्रदीशा: दिशन्त। (१/३२)
अर्थात है मनुष्यों ! जो विद्वानों में कुशल, दानशील, प्रसिद्ध प्रशंसित वाणी वाले विधान करते हुए सँगतिरुप यज्ञ करने को मनुष्यों को विद्वानों में प्रेरणा करते हुए वेद शास्त्र के प्रमाण से सनातन शिल्पविद्या के प्रकाश का उपदेश करते हुए जो शिल्पी लोग होवे उइसे शिल्पविज्ञान शास्त्र पढ़ना चाहिए।
शिल्पी की महत्ता की स्वयं महादेव भी स्वीकार करते हुए पार्वती से कह रहे है-
शिल्पिनाँ देवकृतत्वं वंश्यानां विश्वकर्मण:।
अह्म विश्वस्य कर्त्ता च कर्तारो मम शिल्पिन:।।१।।
शिल्पी गर्भाणि लिंगानी लिंगगर्भश्च शिल्पिन: ।
शिल्पीरुपं तु मदरूपम न भेद: श्रणु पार्वती।।२।।
अर्थात - विश्वकर्मा वंशज शिल्पी ब्राह्मणों का ही देव निर्माण का अधिकार है । मैं संसार की रचना करता हूँ और शिल्पी मेरी रचना करते हैं इस प्रकार शिल्पी लोग मेरा ही स्वरूप हैं उनमें और मुझमे कोई अंतर नही ।
इस तरह शिल्प एवं शिल्पी की महत्ता सुस्पष्ट है। कि शिल्पकर्म यज्ञ कर्म है श्रेष्ठ कर्म है।ब्राह्मणत्व और ब्रह्मर्षि बनने के लिए शिल्प कर्म अनिवार्य है
अर्थात विश्वकर्मा शिल्पी का महत्व ईश्वर तुल्य समान है। विश्वकर्मा शिल्पी को जितना उच्च सम्मान प्राप्त होगा राष्ट उतना ही उन्नत विकसित होता जाएगा।
-संकलन कर्ता
-केदारनाथ धीमान हरिद्वार
(साभार विश्वकर्मावली/विश्वकर्मा वैदिक)
जय हो
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