ईश्वर और भगवान का भेद
ईश्वर को वेद में अजन्मा कहा गया है।यथा ऋग्वेद में कहा है कि-
अजो न क्षां दाधारं पृथिवीं तस्तम्भ द्यां मन्त्रेभिः सत्यैः ।
अर्थात् 'वह अजन्मा परमेश्वर अपने अबाधित विचारों से समस्त पृथिवी आदि को धारण करता है।'
इसी प्रकार यजुर्वेद में कहा है कि ईश्वर कभी भी नस-नाड़ियों के बन्धन में नहीं आता अर्थात् अजन्मा है।
अजन्मादि गुणों की पुष्टि के लिए वेद में ईश्वर को निर्विकार कहा है क्योंकि विकारादि जन्म की अपेक्षा रखते हैं और ईश्वर को 'अज' अर्थात् अजन्मा कहा है।अतः वह निर्विकार अर्थात् शुद्धस्वरुप है।वेद की इसी मान्यता के आधार पर महर्षि पातञ्जलि ने योग दर्शन में लिखा है-
'क्लेशकर्म विपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविषेश ईश्वरः'*
अर्थात् जो अविद्यादि क्लेश,कुशल-अकुशल,इष्ट-अनिष्ट और मिश्रफल दायक कर्मों की वासना से रहित है वह सब जीवों से विषेश ईश्वर कहाता है।
अजन्मा होने से ईश्वर अनन्त है क्योंकि जन्म मृत्यु की अपेक्षा रखता है,मृत्यु अर्थात् अन्त और जन्म एक दूसरे की पूर्वापर स्थितियाँ हैं अतः ईश्वर अनन्त अर्थात् अन्त से रहित है।वेद में ईश्वर को अनन्त बताते हुए कहा है-
अनन्त विततं पुरुत्रानन्तम् अनन्तवच्चा समन्ते।
अर्थात् 'अनन्त ईश्वर सर्वत्र फैला हुआ है।'
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः ।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ।। -(विष्णु पुराण 6/5/74)*
*अर्थ―*सम्पूर्ण ऐश्वर्य,धर्म,यश,श्री,ज्ञान और वैराग्य--इन छह का नाम भग है।इन छह गुणों से युक्त महान को भगवान कहा जा सकता है।
श्रीराम व श्री कृष्ण के पास ये सारे ही गुण थे(भग थे)। इसलिए उन्हें भगवान कहकर सम्बोधित किया जाता है।
वे भगवान् थे, ईश्वर नहीं थे
ईश्वर के गुणों को वेद के निम्न मंत्र में स्पष्ट किया गया है
स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम् ।
कविर्मनीषी परिभू: स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ।। (यजुर्वेद अ. ४०। मं. ८)
अर्थात वह ईश्वर सर्वशक्तिमान, शरीर-रहित, छिद्र-रहित, नस-नाड़ी के बन्धन से रहित, पवित्र, पुण्ययुक्त, अन्तर्यामी, दुष्टों का तिरस्कार करने वाला, स्वतःसिद्ध और सर्वव्यापक है। वही परमेश्वर ठीक-ठीक रीति से जीवों को कर्मफल प्रदान करता है
भगवान अनेकों होते हैं। लेकिन ईश्वर केवल एक ही होता है।
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