होली के अवसर पर विशेष लेख-
राष्ट्रीय एकता, प्रेम, उमंग एवं भाईसारे का पर्व होलीका का दहन कैसे करे?
लेखक- पं. घेवरचन्द आर्य
यह पर्व फाल्गुण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है, अर्थात् साल के अन्तिम मास को पूर्णिमा तक किसानो की गेहूं, जौ, चना, सरसों आदि की फसल पक जाती है, गाडियां भर-भर कर नया अनाज घर में आता है, तो कृषक और समस्त प्रजा मे हर्ष एवं खुशी का वातावरण व्याप्त होता है. उधर मौसम बदलता है, साल और सर्दी दोनों विदा होती है गर्मी का आगमन होता है. अर्थात् जो कुछ होना था हो लिया इसलिए इसे "होली" या "होलक" कहां जाता है, हमारे वेद शास्त्रो मे विधान है की देवो को भोग लगाएं बिना वस्तु का स्वयं उपयोग करना पाप है. इसलिए इस दिन बडा़ सामुहिक यज्ञ कर देवताओं को आहुतियां समर्पित की जाती है. संस्कृत मे अन्न को "होलक" और हिन्दी मे "होला" कहते है इसी आधार पर इस पर्व का नाम "होलिका और होली" पडा है. इसी दिन यज्ञ मे नवीन अन्न आदि की आहुतियां देकर अन्न का प्रसाद एक दुसरे को देकर बडी़ खुशी से गले मिलकर बधाई देते है. वेद एवं संस्कृत में इसे नवस्येष्टि यज्ञ भी कहते है,
एक कपोल कल्पित आख्यान
होलिका पर्व के सम्बध मे लोग कहते है की- होलका प्रहलाद की भुआ थी. वह प्रहलाद को गोद मे लेकर अग्नि मे बैठी, उसमें आग लगाई वह तो जल गई लेकिन प्रहलाद का बाल भी बाका नहीं हुआ.
इस सम्बन्ध मे महर्षि दयानंदजी महाराज अपने कालजयी ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में लिखते है कि- जो लोग इस कहानी को सत्य मानते है, उसको भी अपनी बुआ के साथ आग में बैठकर परीक्षा करनी चाहिए, जो न जले तो समझो प्रहलाद भी नही जला, तभी सत्य मानना चाहिए. अर्थात् यह कहानी पूरी तरह काल्पनिक और सृष्टि नियम के विरूद्ध है.
अग्निदेव का रूप एवं गुण
अग्नि एक जड़ पदार्थ है, जिसका गुण और धर्म है- हर वस्तु को जलाना, वह यह नहीं देखती है की उसमे कौन बैठा है. जो भी अग्नि मे प्रवेश करेगा वह अवश्य जलेगा. अग्नि का दुसरा गुण है आहुतियां स्वीकार कर देवो तक पहुचाना. अगर मान लो प्रहलाद की भुआ जलकर मर गई, तो उसकी चिताग्नि मे नये गेहूं और चने को भूनकर खाने की परम्परा कहाँ से आई ?? क्या जिसमें लाश जलाई गई हो, उसमे कोई होला भूनकर खाएगा ? उस चिताग्नि को लाकर कोई घर मे स्थापित करेगा?? उत्तर होगा नहीं| इसलिए प्रहलाद और होलिका की कथा काल्पनिक और मनगढ़त है, वेद और बुद्धि विरूद्ध है.
सनातन धर्म वैदिक आदर्श होलीका पर्व
होलिका एक प्राचीन पर्व है अर्थात् उत्सव है, जो प्रहलाद के पहले भी सनातन काल से मनाया जाता है, उस दिन सभी गांँव और शहरों के मोहल्ले वाले सामूहिक रूप से बड़ा यज्ञ करते हैं, भारत कृषि प्रधान देश रहा है, कृषि का आधार गौ रही है इसलिए होलिका दहन मे गौमाता के गोबर के कंडो का प्रयोग किया जाता है, जब फाल्गुन मास लगता है पेड पौधो के पते झड़ने लगते है, बड़, पीपल, आंक आदि के पेड़ और टहनियां सुख जाती हैं, कृषकजन अपने अपने खेत खलिहानो मे उगे उन पेडो़ की वे टहनियां काटकर शिल्पियों के घर लाकर देते है, शिल्पी (सुथार) लोग उनको आरी से एक समान लम्बाई मे काटकर, चीर कर एक नाप की, समिधाएं बनाकर पुरे गांव, शहर के मोहल्लो मे घर- घर वितरण करते| उधर माताए और बहने गौमाता के गोबर से उपले और कंडे की मालाए बनाती. होलीका दहन के समय सभी पुरूष, बालक समिधाएं लेकर, बालिकाएँ, माता, बहने उपले और उनकी मालाएँ लेकर नाचते कूदते खुशी मनाते गांव शहर मोहल्ले के बाहर तालाब से दूर मैदान मे एकत्र होकर होलिका दहन करते, जिसमे केवल समिधाएं और गौ के गोबर का प्रयोग करते है, पंडित और राजन्य व्यापारी वर्ग हवन सामग्री मे गौ घृत, कपूर, लोंग, गिलोय, नवीन धान, आदि मिलाकर आहुतियां देते, जिससे वातावरण शुद्ध होता, वायु मे विचरण करने वाले रोग नाशक किटाणुओ का नाश होने से बीमारियां नही फैलती, चुकीं इस विशाल नवस्येष्टि यज्ञ मे सभी मनुष्यो की आहुतियां स्वीकार होती इसलिए यह पर्व सामाजिक एकता एवं भाई-सारे का प्रतिक माना जाता है. जिसमे 36 कोम के सभी आयु वर्ग के जवान बाल वृद्ध की आहुतियां स्वीकार होती है. जब होलिका दहन के बाद सब घर को वापस आते तो घर का मुख्या बुजूर्ग इस नवस्येष्टि यज्ञ से अग्नि लाकर घर के चुल्हे मे स्थापित करते है, जो पुन: होलीका पर्व आने तक कभी नहीं बुझती. जब तक हमारे राष्ट्र मे यह परम्परा रहीं तब तक भारत विश्व मे शिरोमणि और सोने की चिड़िया अर्थात् धन धान्य से भरपूर रहा है.
आर्य समाज मनाता है आदर्श होली
महर्षि दयानन्द जी महाराज द्वारा स्थापित आर्य समाज आज भी सनातन काल से इस परम्परा का निर्वहन कर पर्यावरण अनुकूल एवं स्वास्थ्य वर्धक "आदर्श होलिका दहन" करता है, वैदिक शास्त्रों के अनुसार "आदर्श वैदिक होलिका दहन" में केवल गाय के कंडों और सुखे पीपल या आंक की लकडी़यों का ही प्रयोग करने का विधान है । गौ माता के गोबर में वातावरण की शुद्धि करने की प्रचूर सामर्थ्य होती है। भगवान कृष्ण ने भी गाय माता को सबसे ज्यादा महत्व दिया है । कहते है कि गाय हमें पालती है हम उन्हें नहीं क्यों कि गाय का दूध तो स्वास्थ्य के लिए हितकारी है ही, परंतु उसके गोबर से बने कंडे भी वातावरण को शुद्ध करके प्राणवायु प्रदान करते है। यह भी सर्वविदित है की गाय का गोबर अत्यंत पवित्र माना जाता है। जीते जी लोग इसका उपयोग करते हैं और मरणोपरांत भी गाय के गोबर से लिप कर शव को रखा जाता है। हर मांगलिक व पवित्र कार्यों में गोबर का उपयोग किया जाता है। ऐसे में गोबर के कंडे से होलिका दहन करने से पर्यावरण को संरक्षित किया जा सकता है।
गांँव मोहल्लो मे हो आदर्श होलीका दहन
आजकल होलीका दहन मे अग्रेजी बबूल की गीली लकडी़यों का अत्यधिक प्रयोग करते है परिणाम स्वरूप गीली लकडी़यों के जलने से अत्यधिक मात्रा मे कार्बनडाइ ऑक्साइड गैस निकलती है जो वायु को दूषित करती है. इसलिए सभी आर्य वीर, वीरांगनाए, अपने- अपने गाँव शहर के मोहल्ले में प्रयत्न करके उसे शुद्ध वैदिक होलिका दहन" का स्वरूप प्रदान करने का सार्थक प्रयास करे. होलिका दहन कार्यक्रम हेतु मोहल्ले के वरिष्ठ व सक्रिय युवाओ की टीम बनावे, होलिका दहन में लकडिय़ों के स्थान पर गाय के गोबर से निर्मित कण्डे, बड, पीपल, आक की सुखी समिधाओं आदि का प्रयोग करने हेतु प्रत्येक घर से गाय के गोबर से निर्मित कंडे एकत्र करे. या गोशालाओं से खरीद कर उसमें हवन सामग्री और समिधाओं की आहुतियां देकर आदर्श होलिका दहन करे.
ऐसे मनाये होलिका दहन
होलिका दहन स्थल पर, रंगोली की सजावट करे तथा फिल्मी गंदे भाड़ गानों के स्थान पर वैदिक मन्त्र, भजन इत्यादि रखे। दहन से पूर्व ईश्वर स्तुति मन्त्र, भजन, नृत्य आदि प्रतियोगिता रखी जा सकती है। जहां तक हो सके दहन कार्यक्रम को राजनैतिक स्वरूप से पृथक रखना चाहिये, इसके स्थान पर साधु सन्यासी मोहल्ले के सामाजिक कार्यकर्ता या वयोवृद्ध सज्जनो को आमन्त्रित करे तो श्रेष्ठ है। सभी स्त्री, पुरुष, मन्त्रोच्चार के साथ हवन मे समिधा और सामग्री की आहुतियां समर्पण करें, जिससे वातावरण शुद्ध और सात्विक होगा. होलिका की अग्नि पर घर मे निर्मित घी, गुड़ व मिठाई की आहुतियां अर्पित कर यज्ञ का प्रसाद सभी को वितरण करके इस उत्सव को अनुकरणीय और आदर्श बनाया जा सकता है. इस पवित्र दिन शराब पीना, हुड़दंग करना, अण्डा मांस खाना, अशिष्टता है वर्जित है.
होलीका की रात्रि का महत्व
होलीका उत्साह और उमंग का प्रमुख पर्व है। वर्षभर में आने वाली त्रि-रात्रियो में से एक होली की रात्रि भी है जिसमें किए गए सभी धार्मिक अनुष्ठान, मंत्र, जाप, पाठ आदि सिद्ध, अक्षुण्ण हो जाते हैं, जिनका फल कर्ता को जीवनपर्यंत प्राप्त होता है। इसलिए इस रात्रि को सोना शास्त्रो मे वर्जित बताया है, गांव मे कहावत प्रचलित है की- होलीका के दिन रात्रि को सोने वाला गधा होता है.
ऋतु परिवर्तन का संदेश
होलीका के समय, ऋतु परिवर्तन होता है, सर्दी से गर्मी में प्रवेश होता है। प्राकृतिक रंग जैसे पलाश शरीर को ठंडक दे कर गर्मी से बचाने मे सन्तुलन बनाता है। वैसे ही प्राकृतिक रंगों से होली खेलें। या अम्बीर गुलाल का तिलक लगाकर, पुष्पवर्षा कर आपसी वैर भाव भूलकर एक दुसरे के गले मिलकर, मिठाई खिलाकर शुभकामनाएं और बधाई देकर खुशी मनावे.
पर्यावरण रक्षा मे आदर्श होलिका दहन का महत्व
आदर्श होली का दहन से उपयोगी हरे पेड़ों की रक्षा होती है. लकड़ी की होली का से जो प्रदूषण होता है, वह नही होता गाय के गोबर की होली मनाने से भरपूर मात्रा में आक्सीजन उत्पन्न होती है । एक सुखद वातावरण बनता है, वायु प्रदूषण मुक्त होकर रोगनाशक किटाणुओं का खात्मा करके स्वास्थ्य वर्धक वातावरण बनाती है , जिससे बीमारीयां कम होती है, हवन सामग्री मे घी, कपूर, लौंग, गिलोय, नवीन धान, मिलाकर आहुतियां देने तथा कंडो की होलिका जलाने से वातावरण में जितने भी रोग नाशक कीटाणु कीड़े है वे खत्म हो जाते है , इससे वायु शुद्ध होती है, जिससे प्राणीयों को सुख पहुंचता है, यही आदर्श होली का रूप है. आओ हम भी "वैदिक आदर्श होलीका" मनाने का संकल्प ले और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वहन कर आदर्श नागरिक बने.
पं घेवरचंद आर्य पाली