अपनी सबसे पवित्र प्राचीन मातृभूमि “आर्यावर्त” का धर्मशास्त्रों में प्रथम रहस्या उल्लेख-
धर्मशास्त्र-सम्बन्धी ग्रन्थों में वैदिक धर्म के अनुयायियों के देश या क्षेत्र आर्यावर्त के विषय में प्रभूत चर्चा होती रही है। ऋग्वेद के अनुसार आर्य-संस्कृति का केन्द्र सप्तसिन्धु अर्थात् आज का उत्तर-पश्चिमी भारत एवं पंजाब
गच्छताम्) । वायुपुराण ने भी यही बात दुहरायी है। एक मनोरंजक बात यह है कि भारतवर्ष के वे प्रदेश, जो आज अपने को अति कट्टर मानते हैं, आवित्यपुराण द्वारा (स्मृतिचन्द्रिका के उद्धरण द्वारा) वास के योग्य नहीं माने गये हैं, यहाँ तक कि वहाँ धर्मयात्रा को छोड़कर कभी भी ठहरने पर जातिच्युतता का दोष प्राप्त होता था तथा प्रायश्चित्त करना पड़ता था | आविपुराण. (आदित्यपुराण) में आया है कि आर्यावर्त के रहनेवालों को सिन्धु, कर्मदा (कर्मनाशा ) या करतोया को वर्मयात्रा के अतिरिक्त कभी भी नहीं पार कर ना चाहिए; यदि वे ऐसा करें तो उन्हें चन्द्रायण व्रत करता चाहिए।"
काञचौकाह्यपसौराष्ट्रदेवराष्ट्रास्थ्रभत्स्यजा:। कावेरी कोड्ूणा हुणास्ते देशा निन्दिता भूशम्॥ पठचनदो.....वसेत्॥ ....सौराष्ट्रसिन्धुसोवीरसावन्त्यं दक्षिणापथम। गत्वेतान् कामतो देशान कालिज्ूगंश्च पतेद् द्विजः॥ स्मृतिचन्द्रिका द्वारा उद्धृत आवित्यपुराण;। आदिपुराण--आर्यावतंसमुत्यज्ञों द्विजो वा यदि वाइहिज:। कर्मदासिन्धुपारं च करतोयां न लङ्घंयेत्। जार्यावर्तमतिकम्य बिना तोर्थक्रियां द्विजअः॥ आज्ञां चेव तथा पिन्नोरेन्देत विशुध्यति ॥
परिभाषाप्रकाद, पृ०५९।
स्मतिकारों एवं भाष्यकारों ने आर्यावर्त या भरतवर्ष या भारतवर्ष में व्यवहत वर्णाश्रमधर्मों तक ही अपने के सीमित रखा है। उन्होंने इतर लोगों के आचार-व्यवहार को मान्यता बहुत ही कम दी है; याजवल्वयस्मृति (२।१९२) ने कुछ छूट दी है।
विश्वकर्माज्ञानज्योति -पांचाल_मंडली -रमेश_पांचाल