विश्वकर्मा ब्राह्मण है या नहीं ?
vishwakarma brahmin hai ya nahi
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Vishwakarma God
वेद में लिखा है-
यस्यां वेदि परिग्रहणन्ति भूम्यां यस्यां तन्वते।
विश्वकर्माण साना भूमिर्वर्धयत् वर्धमानाः।।
(अथर्ववेद कांड १२, सूक्त १, मन्त्र १३,)(धीमान कुलादर्शपृष्ठ-५३)
अर्थ- (विश्वकर्माण) शिल्पी लोग (यस्यां) जिस (भूम्याम) पृथ्वी से (वेदिम्) वेदी हवन कुंड को (परिग्रहन्नति) सब ओर से सुन्दरता युक्त निर्माण करते हैं, और (यस्यां) जिस वेदी में (यज्ञम) अग्नि होत्रादि होम को (तन्वते) करते है, (सा वर्धमानाः) वह बढ़ी हुई (भूमि नो) पृथ्वी हम सबका (वर्ध्वत्) बढ़ावे।
इस मंत्र में (विश्वकर्माण) का अर्थ ही शिल्पी ब्राह्मणों के लिए प्रयुक्त हुआ है, जो कि यज्ञ पात्र वेदी हवन कुंड बनाने वाले और उसमे होम (यज्ञ) करने वाले कहे हैं।
vishwakarma brahman hai
रथं ये चक्रु सुवृतम् सुचेत सोयविह्वरन्तं मनसस्यपरिध्य्या।
तां उन्वस्य सवनस्य पीतये आवो वाजा ऋभवो वेद यामसि।।
(ऋग्वेद मण्डल ४, सूक्त ३६, मन्त्र २, धीमान ब्राह्मण कुलादर्श पृष्ठ १६)
अर्थ- है सिद्धहस्त क्रिया पुरुषों ऋभवों (बुद्धिमानो) जो आप लोगों को इस शिल्प विद्या की त्रप्ति के लिए उत्तम विज्ञान वाले, विज्ञान के ध्यान से टेढ़ा न चलने वाले अंग ओर उपांगों के सहित उत्तम विमानादि वाहन को सब ओर से बनाते हैं, और जिनको हम लोग सब ओर से भली भांति जानते हैं उनको निश्चय करके आप लोग ग्रहण कीजिये। यह प्रसिद्ध है।
ब्रह्मणा शालां निमित्ताम् कविभिः निर्मितां।
इंद्राग्री राक्षतां शाला ममृतौ सोम्यं सदँ।। (अथर्ववेद ९, ३, १९)
अर्थ-(अमर्तो) स्वरूप से नाश रहित (इंद्राग्री) वायु और पावक (कविभिः) उत्तम विद्वान शिल्पियों ने (मिताम्) प्रमाणयुक्त अर्थात माप में ठीक वैसी ही जैसी चाहिए वैसी(निमित्ताम्) बनाई हुई (शालांद्ला) को और (ब्रह्मणाः) चारों वेदों के जानने वाले विद्वान द्वारा सब ऋतुओं में सुख देने वाली (निमित्ताम) बनाई हुई (शालां) शाला को प्राप्त होकर रहने वालों की (रक्षताम्) रक्षा करें, अर्थात चारों ओर का शुद्ध वायु शाला के अशुद्ध वायु को निकालता रहे और जिसमें सुगंधादि घृत का होम किया जाए वह अग्नि दुर्गंधादि को निकालकर सुगंध का स्थापन करे।
उटवाचार्य भाष्य- स्थपतये स्थपतिः गृहादीनां चेताचयनं करोति विश्व कर्म रूपपेण॰।
महीधर भाष्य-स्थपति गृहादि कर्ता विश्वकर्म रूपेण तस्मै नमः।
अर्थः- विश्वकर्मा के स्वरूप से मकानादि शिल्पीय पदार्थों की रचना करने वाले शिल्पियों को नमस्कार हो।
इस प्रकार वेद में शिल्पी ब्राह्मण को नमस्ते कर उनका सत्कार किया है।
अतः जनता को चाहिये कि राजा सहित अंगिरा वंशीय विश्वकर्मा शिल्पी ब्राह्मणों को संतुष्ट करके उसका सत्कार करें।
प्रजापतिर्यज्ञमतनुतः सऋचैव होत्रम करोत् ।
यजुषाध्वर्यवं साम्नोद्गात्रमथर्वांगिमि ब्रह्मनत्वम्।।
(गोपथ ब्राह्मण ३,२)
अर्थ-प्रजापति (विश्वकर्मा) ने यज्ञ की रचना की उसने ऋग्वेद के द्वारा होत्र, कर्म, यजुर्वेद के द्वारा अध्वर्यु, कर्म सामवेद के ज्ञाता सामवेदी से उद्गाता का कार्य और अथर्ववेदी शिल्पी ब्राह्मण का से ब्रह्मा का कार्य करने का अधिकार नियत किया है। ब्रह्मा यज्ञ का प्रधान होता है उसका कर्तव्य है कि वह अथर्ववेद के मन्त्रों से आहुति दे और सब कार्यकर्ताओं की देख रेख करें। यदि कोई भूल चूक अथवा त्रुटि होवे तो उसका सुधार करे।
विश्वकर्मा ब्राह्मण श्रेष्ठ क्यों?
इसलिए शिल्पाचार्य महर्षि विश्वकर्मा भौवन वंशीय ब्राह्मण अर्थात रथकारा ऋभु लोग यज्ञ में (ब्रह्माद्) पद के अधिकारी हैं। क्योंकि यह यज्ञ पात्र, हवन कुंड (वेदी) बनाना जानते हैं।
जो ब्राह्मण यज्ञ पात्र (वेदी) इत्यादि बनाना नही जानता है वह ब्राह्मण यज्ञ करने, कराने का अधिकारी नही हो सकता। इसके अधिकारी महर्षि विश्वकर्मा भौवन वंशीय ऋभु रथकार धीमान शिल्पी ब्राह्मण लोग ही होते है। योंकि यह वेद की शिल्प विद्या में निपुण और हस्त क्रिया में कुशल है। यह रथ गाड़ी, यान, विमान, नोका, घर आदि का निर्माण करते, कराते चले आ रहे हैं।
विश्वकर्मा विमना आद्विहाया धाता विधाता परमोत संद्दृक्।
तेषामिष्टानि समिषा मदन्ति यत्रा सप्तऋषीन्पर एकमाहुः।।
-(ऋग्वेद मंडल-१0, सूक्त-८२, मंत्र-२)
अर्थ- वो महान विश्वकर्मा जिसका समस्त जग को निर्माण करने का कार्य है और जो अनेक प्रकार के विज्ञान से युक्त, समस्त पदार्थों में व्याप्त, सबका धारण पोषण करनेवाला एवं रचने वाला, सबको एक समान देखने वाला, सबसे उत्तम जो है और जो परमात्मा अद्वितीय है वैसा कोई और नहीं है। विद्वान लोग कहते हैं वो सप्तऋषियों से भी ऊंचे स्थान पर स्थापित है और उनकी अभिलाषाओं को हव्यान्न द्वारा पूर्ण करते हैं।
कौन हैं विश्वकर्मा ?
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Kon Hai Vishwakarma
भगवान परशुराम धीमान हैं।
इस ‘धनुर्वेद संहिता प्रकरण-१’ के मन्त्र में भगवान परशुराम को धीमान कहा गया है-
अयोवाच महादेवा परशुराम च धीमते।
तत्तेयहं सं प्रवक्ष्यामि याथातथ्येन सश्रुणु।।
अर्थ- एक समय विश्वामित्र जी वशिष्ठ जी से बोले की आप मेरे प्रति शत्रुओं के निमित्त धनुर्विद्या कहो। तब वशिष्ठ जी विश्वामित्र जी से बोले कि महादेव जी ने जो धीमान परशुराम जी से कहा है वह में तुम्हे कहता हूं यहाँ महादेव जी ने ऋषि परशुराम जी को धीमान कहा है।