शिल्पकारो (सुथारो) के नवजागरण में आर्य समाज की भूमिका
shilpkaro, Sutharo ke navjagaran mai Arya Samaj ki Bhumika
लेखक- घेवरचन्द आर्य पाली
वह गुलामी का काल था 19 वी शताब्दी सन् 1920 से पहले की बात है। देश में अंग्रेजों का राज था और गांवों में सवर्णो (ब्राह्मण ठाकुर और वैष्णो) का। उस समय अखिल भारतीय जांगिड़ ब्राह्मण महासभा की स्थापना भी नहीं हुई थी। उत्तर प्रदेश के गढ़वाल में सवर्णों तथा स्थानीय मुसलमान युवक-युवतियां के विवाह के अवसरों पर डोला-पालकी के उपयोग की परंपरा सदियों से रही है। बारात में डोला-पालकी बनाने एवं उठाने का कार्य मुख्यत शिल्पकार (सुथार) ही करते थे। उस समय इन शिल्पी ब्राह्मणो की हालत गुलाम कहारो के समान थी।
सवर्ण समाज (ब्राह्मण ठाकुर वैष्णव) ने उन्हें अपने ही पुत्र पुत्रियों के विवाह के अवसर पर डोला-पालकी के प्रयोग से वंचित कर दिया था। शिल्पकार (सुथार) वर-वधुओं को डोला-पालकी तथा ऐसी सवारियों पर बैठने का सामजिक अधिकार नहीं था। नियम के प्रतिकूल आचरण करने वाले शिल्पकारों (सुथारो) को ये लोग बहुत दण्डित करते थे। उस काल में जबकि गांवो में जागिरदारी प्रथा के चलने गांवो में ठाकुर लोग जांगिड़ (सुथारो) से बेगार करवाते थे। अर्थात परिश्रमिक दिये बिना काम करवाते थे, जिससे अन्य सवर्णों की अपेक्षा शिल्पकार (सुथार) आर्थिक दृष्टि से भी बहुत पिछडे हुए थे।
देवयोग से 20 वीं शताब्दी में नवजागरण के प्रभावों के फलस्वरूप 17अक्टूबर 1881 ई को उत्तरप्रदेश के गांव अरकंडाई पौड़ी में छविलाल शिल्पकार (सुथार) के घर एक बालक का जन्म हुआ जो आगे चलकर जयानन्द भारती के रूप में विख्यात हुआ। सुथार समाज में जन्मे जयानन्द भारती के नेतृत्व में सन् 1920 के पश्चात शिल्पकारों (सुथारो) की सामजिक, आर्थिक, समस्याओं तथा, उनमें व्याप्त कुरीतियों के हल के लिए संघठित प्रयास किये गए। जयानंद भारती ने आर्य समाज के सवर्ण नरेंद्र सिंह तथा सुरेन्द्र सिंह के साथ मिलकर शिल्पकारों (सुथारो) में व्याप्त कुरीतियाँ दूर करने बच्चों को शिक्षा के लिए स्कूल भेजने के लिए प्रेरित किया। कुमाऊ में लाला लाजपत राय की उपस्थिति में सन् 1913 में आर्य समाज के शुद्धिकरण के समारोह में शिल्पकारों (सुथारो) को यज्ञोपवीत देने का कार्यक्रम चलाया गया। शिल्पकारों (सुथारो) को यज्ञोपवीत दिए जाने के फलस्वरूप गढ़वाल में भी आर्य समाज द्वारा सन् 1920 के पश्चात् सामुहिक यज्ञोपवीत धारण करवाने का कार्यक्रम चलाया गया था। शिल्पकारों (सुथारो) के मध्य जन-जागरण कार्यक्रम के अर्न्तगत सवर्णों के एक वर्ग विशेष द्वारा शिल्पकारों (सुथारो) के साथ संघर्ष की घटनाएं इस तथ्य की ओर संकेत करती है कि रूढिवादी व्यक्ति समाज परिवर्तन में अवरोधक बन गए थे। उस समय राजस्थान में भी ऐसे ही हालत थे यहां तो स्वर्ण लोग शिल्पकारो (सुथारो) को कुओं से पानी तक नहीं भरने देते थे।
अंग्रेजों का जमाना था ईसाई पादरी गांवो में धर्मांतरण करवा रहे थे। अपनी इस दयनीय दशा से छुटकारा पाने के लिए गढ़वाल एवं राजस्थान के शिल्पकारो की धर्मांतरण में रूचि बढती जा रही थी जो एक चिन्ता एवं चुनौती था। ईसाई मिशनरी तो इसी के इन्तजार में रहते थे। फलस्वरूप आर्य समाज द्वारा ईसाई मिशनरियों के कुचक्र को रोकने के लिए शिल्पकारों (सुथारो) के मध्य उनके सामाजिक, आर्थिक पिछडेपन को दूर करने के लिए प्रयत्न किये गए। इन प्रयासों में 1910 में दुग्गाडा में आर्य समाज का पहला स्कूल स्थापित किया गया था। तत्पश्चात सन् 1913 में स्वामी श्रद्धानंद द्वारा आर्य समाज का स्कूल प्रारंभ किया गया। गढ़वाल में आर्य समाज से इन प्रारम्भिक प्रयत्नों से एक ओर जहाँ आर्य समाज के कार्यो में अपेक्षाकृत वृद्धि हुई वही दूसरी ओर शिल्पकार (सुथारो) में शिक्षा के प्रति रुझान भी बढ़ा। इससे शिल्पकारों (सुथारो) में स्वाभिमान जागृत हुआ जिसके फलस्वरूप ईसाईकरण के प्रयास शिथिल पड़ने लगे। उन दिनों शिल्पकारों (सुथारो) में अशिक्षा कितनी थी इसका अनुमान इसी तथ्य से चलता है कि प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व तक गढ़वाल में एक भी शिल्पकार (सुथार) इंट्रेस परीक्षा उतीर्ण नहीं था।
गढ़वाल में आर्य समाज को विस्तार देकर शिल्पकारो (सुथारो) की सहानुभूति अपने पक्ष में करने के उद्देश्य से आर्य प्रतिनिधि सभा के उपदेशक सन् 1920 में गढ़वाल के प्रमुख नगरो कोटद्वार, दुगड्डा, लेंसिदौन, श्रीनगर में भेजे गए। इनमें गुरुकुल कांगडी के प्रचारक नरदेव शास्त्री जी प्रमुख व्यक्ति थे। गढ़वाल में आर्य समाज के आन्दोलन के रूप में गाँवों तक पहुँचने के उद्देश्य से नगर-कस्बों के पश्चात् चेलू सैन, बीरोंखाल, उदयपुर, अवाल्सु ं,खाटली, आदि ग्रामीण क्षेत्रों में आर्य समाज की शाखाएं और विद्यालय आदि स्थापित कर ईसाई मिशनरी की चुनौती को स्वीकार किया गया। 1920 में आर्य समाज के तत्वावधान में अकाल राहत व शैक्षणिक कर्यकर्मों के प्रारम्भ होने के पश्चात् शिल्पकारों (सुथारो) को सवर्णों के समान सामजिक अधिकार दिलाने के उद्देश्य से उनका यज्ञोपवीत संस्कार भी आर्यसमाज द्वारा आरंभ किया गया।
सन् 1924 में जयानंद भारती के नेतृत्व में डोला-पालकी बारातें संगठित की गई। इस प्रयास में कुरिखाल तथा बिंदल गाँव के शिल्पकारों (सुथारो) की बारात ने डोला-पालकी के साथ कुरिखाल से बिंदल गाँव के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में कहीं भी सवर्णों के गाँव नहीं पड़ते थे। कुरिखाल के कोली शिल्पकार (सुथार) भूमिदार होने के कारण अन्य शिल्पकारों (सुथारो) की तुलना में संपन्न थे। दूसरी ओर उन्नी व्यवसाय के कुशल शिल्पी के रूप में इनके कुटीर उद्योग भी समृद्ध थे। जातिवाद को चुनौती देने के उद्देश्य से आर्य समाजी नेताओं के संरक्षण में डोला-पालकी बारात निकाली गई। किन्तु दुगड्डा के निकट चर गाँव के संपन्न मुस्लिम परिवार के हैदर नामक युवक के नेतृत्व में हिन्दू सवर्णों द्वारा जुड़ा स्थान पर शिल्पकारों (सुथारो) की बारात रोकी गई। डोला-पालकी तोड़कर बारातियों के साथ मार- पीट की गयी। प्रशासन के हस्तक्षेप किये जाने के उपरांत भी चार दिन तक बारात मार्ग में ही रुकी रही। ऐसी अनेक घटनाएं उस काल में हुई।
भारतीजी न केवल संघर्ष के मोर्चे पर खड़े हुए बल्कि अदालतों में भी वाद दायर किये। इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा शिल्पकारों (सुथारो) के हक़ में फैसला दिया गया। फिर भी सवर्णों के अत्याचार रूके नही। जयानंद भारती ने एक सत्याग्रह समिति बना कर इन अत्याचारों के विरुद्ध लड़ाई जारी रखी। देश के बड़े नेताओं गोविन्द बल्लभ पन्त, जवाहर लाल नेहरु और महात्मा गांधी को भी उन्होंने इन अत्याचारों से अवगत कराया गया। गांधी जी को पत्र लिख कर, उन्होंने आग्रह किया कि गढ़वाल में शिल्पकारों (सुथारो) की बारातों पर अत्याचार बंद होने तक वे व्यक्तिगत सत्याग्रह पर रोक लगा दे। गांधी जी ने भारतीय जी के पत्र को गंभीरता पूर्वक लिया और गढ़वाल में सुथारो के उत्पीड़न बंद होने तक व्यक्तिगत सत्याग्रह पर रोक लगा दी।
आर्य समाज द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर डोला-पालकी के लिए यह संघर्ष किया गया। अंत में अनेक प्रयासों और जन जागरण के पश्चात शिल्पकारों (सुथारो) को अपना हक
दिलवाया। डोला-पालकी आंदोलन लगभग 20 वर्ष तक चला। इस आंदोलन के प्राण आर्य समाज की शान जयानंद भारती उर्फ़ जयानन्द आर्य "पथिक" थे। एक निम्न शिल्पकार (सुथार) परिवार में जन्म लेकर जयानंद भारती ने स्वामी दयानंद के समानता के सन्देश को जनमानस तक पहुँचाने के लिए जो संघर्ष किया। यह अपने आप में एक कीर्तिमान है। अगर जयानन्द भारती और हमारी महासभा के तीनों प्रेरको ने हमें न जगाया होता तो हम सब ईसाई और मुस्लिम बन चुके होते। आश्चर्य आज हमारे देश की राजनीति में जयानंद भारती और महासभा के तीनों प्रेरको तथा आर्य समाज के द्वारा समाज हित में किए गये कार्य को पुनः स्मरण तक नहीं किया जाता। ऐसा कृतघ्न समाज दुनिया में खोजने पर भी नहीं मिलेगा।
अछुतों ने डॉ अम्बेडकर को, मालीयो ने और पिछडो ने ज्योतिबा फुले को, राजपुरोहितों ने खेताराम जी महाराज को, पटेलों ने राजाराम जी महाराज को अपना आदर्श बनाकर बड़े-बड़े भवन शिक्षा के केन्द्र खड़े कर दिए। लेकिन हम शिल्पी (सुथार) जयानन्द भारती, अखिल भारतीय जांगिड़ ब्राह्मण महासभा के तीनों प्रेरको, (पालारामजी, इन्द्रमणी जी, गोरधनलाल जी), गुरूजी जयकृष्ण जी मणिठीयां, पं डालचंद जी, स्वामी कल्याणदेव जी आदि समाज की महान विभूतियों और यहां तक कि ब्रह्म ऋषिअंगिरा को भी भूलकर केवल विश्वकर्मा को पकड़ कर बैठ गये है। जिन नामधारी ब्राह्मणों और वैष्णो ने सैकड़ों वर्ष तक हमारे पुर्वजों पर अत्याचार किये वे स्वतंत्रता के बाद हमारे आदर्श बन गये। और *जिस आर्य समाज ने वर्षों संघर्ष कर हमें अपना हक और अधिकार दिलवाया वह आर्य समाज हमारे लिए अछूत बन गया। भगवान विश्वकर्मा केवल जांगिडो के नहीं समस्त सृष्टि के मनुष्यों के लिए एक समान उपास्य है। लेकिन हम स्व स्वार्थ में विश्वकर्मा के पांचों पुत्रों के नाम से अलग अलग संगठनों में विभाजित होते गये जिससे हमारी संगठन शक्ति बिखर गई । हम अन्य समाजों की अपेक्षा पिछड़ते गये।
पिछले दिनों अखिल भारतीय जांगिड़ ब्राह्मण महासभा दिल्ली और प्रदेश सभा राजस्थान के मार्गदर्शन तथा नेतृत्व में आयोजित ऐतिहासिक विश्वकर्मा महाकुंभ का सफल आयोजन विश्वकर्मा वंशजों को एक करके संगठित करने का स्तुत्य प्रयास था। जिसमें समाज ने करवट लेकर लाखों की उपस्थिति दर्ज करवाकर संगठन शक्ति का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया जो निश्चित ही हमारे लिए गर्व करने योग्य है । जिस तरह महाकुंभ में संगठित होकर हमने अपनी संगठन शक्ति के साकार रूप में दर्शन करवायें, उसी तरह सब मिलकर अपने उन महान पुरुषों के इतिहास और योगदान से समाज को अवगत करवाये। और उनके ऋण से मुक्त होकर खुशहाल बने।
स्त्रोत- गूग