पहली भारतीय महिला डॉक्टर के जन्मदिन पर श्रद्धांजलि
एजेंसी
अंग्रेजों के जमाने में डॉक्टर की प्रैक्टिस करने वाली पहली भारतीय महिला और बाल विवाह की प्रथा के खिलाफ खड़ी होने वाली विश्वकर्मा समाज की रुखमाबाई राउत के 153वें जन्मदिन पर गूगल ने शानदार डूडल बनाकर उन्हें श्रद्धांजलि दी।
डूडल में रुखमाबाई सुथार की आकर्षक रंगीन तस्वीर लगाई गई हैं और उनके गले में आला लटका है। इसमें अस्पताल का एक दृश्य दिखाया गया है जिसमें नर्स बिस्तर पर लेटी महिला मरीजों का इलाज कर रही हैं।
विश्वकर्मा समाज के जनार्दन पांडुरंग सुथार के घर 22 नवंबर 1864 को जन्मीं .. रुखमाबाई की 11 साल की आयु में बगैर उनकी मर्जी के 19 वर्ष के दादाजी भीकाजी के साथ शादी कर दी गई थी। जब रुखमाबाई ने दादाजी के साथ जाने से मना किया तो यह मामला वर्ष 1885 में अदालत में गया। इस दौरान रुखमाबाई ने पति के साथ जाने की बजाय छह महीने की सजा काटने की बात कही।
रखमाबाई राउत: बचपन में हुई शादी के ख़िलाफ़ संघर्ष करने वाली लड़की
अनघा पाठक
संवाददाता, बीबीसी मराठी
डॉ. रखमाबाई राउत संभवत: भारत की पहली महिला डॉक्टर थीं. लेकिन डॉक्टर होने से कहीं ज़्यादा वो भारत की शुरुआती नारीवादियों में से एक थीं. सिर्फ़ 22 साल की उम्र में उन्होंने अपने तलाक़ के लिए कोर्ट में क़ानूनी लड़ाई लड़ी.
उस ज़माने में पुरुषों का अपनी पत्नियों को छोड़ देना या फिर तलाक़ दे देना, आम बात थी.
लेकिन शायद रखमाबाई वो पहली भारतीय महिला थीं जिन्होंने अपने पति से तलाक़ की मांग की.रखमाबाई के इस क़दम ने उस वक़्त के रुढ़िवादी समाज को पूरी तरह हिलाकर रख दिया.रखमाबाई राउत का जन्म मुंबई (तत्कालिक बॉम्बे) में साल 1864 में हुआ था. उनकी विधवा मां ने महज़ ग्यारह वर्ष की उम्र में उनकी शादी करवा दी थी. लेकिन रखमाबाई कभी भी अपने पति के साथ रहने के लिए नहीं गईं और हमेशा अपनी मां के साथ ही रहीं.
साल 1887 में उनके पति दादाजी भीकाजी ने वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए कोर्ट में याचिका दायर की. अपने बचाव में रखमाबाई ने कहा कि कोई भी उन्हें इस शादी के लिए कोई मजबूर नहीं कर सकता है क्योंकि उन्होंने कभी भी इस शादी के लिए सहमति नहीं दी और जिस समय उनकी शादी हुई वो बहुत छोटी थीं.अदालत ने फ़ैसले में उन्हें दो विकल्प दिये. पहला, या तो वो अपने पति के पास चली जाएं या फिर छह महीने के लिए जेल जाएं.
रखमाबाई ने जबरदस्ती की शादी में रहने से बेहतर जेल जाना समझा. वो जेल जाने के लिए तैयार हो गईं. उनका यह फ़ैसला उस समय के लिहाज़ से एक ऐतिहासिक और बेहद साहसिक था.इस मामले ने काफी तूल पकड़ा और उनकी काफ़ी आलोचना भी हुई. यहां तक कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बालगंगाधर तिलक ने भी अपने अख़बार में उनके ख़िलाफ़ लिखा. उन्होंने रखमाबाई के इस क़दम को हिंदू परंपराओं पर एक धब्बे के रूप में परिभाषित किया.उन्होंने यह भी लिखा कि रखमाबाई जैसी महिलाओं के साथ ठीक वैसा ही व्यवहार किया जाना चाहिए जैसा चोर, व्यभिचारी और हत्या के आरोपियों के साथ किया जाता है. इन आलोचनाओं और निंदा के बावजूद रखमाबाई अपने फ़ैसले पर डटी रहीं और वापस लौटकर नहीं आईं.अपने सौतेले पिता सखाराम अर्जुन के समर्थन से उन्होंने अपने तलाक़ के लिए क़ानूनी लड़ाई लड़ी. अदालत ने उनके पक्ष में फ़ैसला नहीं दिया बावजूद इसके उन्होंने अपनी लड़ाई जारी रखी.अपनी शादी को ख़त्म करने के लिए उन्होंने रानी विक्टोरिया को एक पत्र भी लिखा. रानी ने अदालत के फ़ैसले को पलट दिया. अंत में उनके पति ने मुक़दमा वापस ले लिया और रुपये के बदले ये मामला कोर्ट के बाहर ही निपटा लिया
.इस ऐतिहासिक घटनाक्रम के बाद क्या कुछ बदला?
रखमाबाई के इस केस ने भारत में 'एज ऑफ़ कंसेंट एक्ट 1891' के पारित होने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस क़ानून से भारत में सभी लड़कियों (विवाहित और अविवाहित) से यौन संबंध स्थापित करने में सहमति लिए जाने की उम्र 10 साल से बढ़ाकर 12 साल कर दी गई.भले ही आज यह बहुत बड़ा बदलाव समझ नहीं आता हो लेकिन इस अधिनियम ने ही पहली बार यह तय किया कि कम उम्र की लड़की के साथ यौन संबंध बनाने वाले को सज़ा हो सकती है, भले ही वह विवाहित क्यों ना हो. इसके उल्लंघन को बलात्कार की श्रेणी में रखा गया.
रुखमाबाई ने महारानी विक्टोरिया को पत्र लिखा, जिन्होंने अदालत के आदेश को पलट दिया और शादी को भंग कर दिया। इस मामले पर हुई चर्चा ने 'सहमति आयु अधिनियम, 1891 पारित करने में मदद की जिसमें ब्रिटिश शासन में बाल विवाह पर रोक लगाई। जब रुखमाबाई ने चिकित्सा की पढ़ाई करने की इच्छा जताई तो इंग्लैंड में लंदन स्कूल ऑफ मेडिसिन में उनकी पढ़ाई व यात्रा को फंड जुटाया गया।