Virat Vishwakarma Parmeshwar
विराट विश्वकर्मा परमेश्वर
भगवान् विश्वकर्मा से याचना
ब्रह्मणस्पते त्वमस्ययन्ता सूक्तस्य बोधितनयं च जिन्व । विश्वं तटद्रं यदवन्ती देवी बृहद्वदेम बिदथे सुवीरः ।। य इमा विश्वा। विश्वकर्मा योनः पिता । आत्रपतेऽत्रस्य नो देहि ।।1511 (यजु० । अ० 34। मंत्र 58)
अर्थ-है ब्रह्माण्ड के स्वाभिन् परमेश्वर आप इस संसार को नियम में रखने वाले हो, हमारी साधु वचन युक्त स्तुति को सुनिये, हमारी आगे आने वाली संतान से प्रीति रखिये। हे भगवान् वह सब भलाई हमें प्राप्त हों, जिनकी याचना दिव्य आत्मायें करती रहती हैं। सुन्दर वीर पुरुषों से युक्त होकर हम लोग यज्ञ में उच्च स्वर से बोलें, हमारी यह याचना उस सबके रक्षक महाप्रभु विश्वकर्मा से हैं, जो इन समस्त पदार्थों का होम प्रलय काल में अपने अन्दर कर लेता है। तथा जो इस सारे संसार का बनाने वाला है तथा जो अत्रादि पदार्थों का स्वामी हमारा पिता है, वह भगवान विश्वकर्मा हमारे लिये अन्न दे।
मनुष्यों को चाहिये कि जो सारे ब्रहमाण भर का स्वामी सूर्य तथा पृथ्वी आदि लोकों को नियम में चलाने हारा, वेद वाणी का दाता अन्नादि पदार्थों का उत्पन्न करने वाला और सब को रोजी देने वाला है, भक्ति से उसी महाप्रभु विश्वकर्मा की उपासना किया करें।
वह प्रभु नित्य है अविनाशी है अर्थात सर्वकाल में एक सम रहने वाला है। अत: वह इस जगत के उत्पन्न होने से पूर्व वर्तमान था, जब कि-
न भूमि न जलं चैव न तेजो न च वाय वः ।
न आकाश न चिन्त च न बुद्धया घ्राण गोचरा ।।
अर्थ-
न पृथ्वि थी, न जल था, न अग्नि थी, न वायु था, न आकाश था. न
मन था, न बुद्धि थी और घ्राण आदि इन्दियां भी नहीं थी।
श्रुति-न धाता न विष्णुर्न रूद्रो न देवो विश्वकर्मा स एका विश्वं प्रतिष्टति । न ब्रह्मा नैब विष्णुश्च न रूद्रो न च देवता । एक एक भवे द्विश्वकर्मा विश्वाभि देवता ।।
(विश्व ब्रह्म पुराण। अ० 2)
अर्थ- न ब्रह्मा न विष्णु था, न रूद्र (शिव) था तथा अन्य कोई भी
देवता नहीं था, उस सर्व शून्य प्रलय के समय:-
जैसे ईश्वर का गुणवाचक नाम विश्वकर्मा है, वैसे ही उस प्रभु के ब्रह्मा विष्णु, शिव, त्वष्टय तथा अग्नि आदि नाम भी होते हैं। इसी प्रकार उस ईश्वर के असंख्य नाम है और यही नाम संसारी लोगों के भी होते हैं जिन्हें पुराणों में देवता माना गया है अग्नि आदि नाम जड़ पदार्थों के भी होते हैं। यह बात प्रकरणानुसार समझनी चाहिये। जैसे कि यहां ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि नाम ईश्वर के अर्थ से पृथक विद्वान् लोगों के हैं इत्यादि । मैं समस्त ब्रह्मांड के अपने में ही लय किये हुये सब का पूज्यदेव केवल एक ही विश्वकर्मा परमेश्वर वर्तमान था।
समाजातं न पुराकिंच नैव,
य आवभूव भुवनानि विश्व ।
प्रजापति प्रजया सछ रराण,
स्त्रीणि ज्योति छषि सचते स षोडशी ।
(यजु० अ० 32 मंत्र 5)
भावार्थ वह ईश्वर अनादि है इस कारण उससे पहले कुछ भी हो नहीं सकता अर्थात सब कुछ वही उत्पन्न करता है और वह सब प्रजाओं में व्याप्त जीवों के अच्छे और बुरे कर्मों को देखता और उनके अनुकूल फल देता हुआ ज्याय करता है। जिसने प्राण आदि सोलह वस्तुओं को बनाया है, इससे वह पोडशी कहलाता है। (प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, कर्म, लोक और नाम) यह षोडशकला "प्रश्नोपनिषद" में हैं। यह सब षोषड्श वस्तु रूप जगत उसी ने बनाया और वही पालन करता है और सब में उसी की ज्योति का प्रकाश है-
श्रुति-सूर्यो ज्योति ऽग्नि ज्योतिश्चन्द्रे च चन्द्र नक्षत्रे च ज्योतिः ।
विश्वकर्मा सर्व भूतात्मा देवतात्मा परं ज्योति रिति । ।
(विश्ववह्म पुराण अ० 3)
अर्थ- सूर्य में, अग्नि में, चन्द्रमा में और और तारागण आदि नक्षत्रों में जो चमक है यह सब उसी विश्वकर्मा परमेश्वर को ज्योति का प्रकाश है तथा सर्व भूतात्मक और देवात्मक होने से वह प्रभु परम ज्योति है और वहीं सब में व्याप्त है ।
उसी सर्व व्यापक परमेश्वर को विराट विश्वकर्मा भी कहते हैं।
(विश्व ब्रह्म पुराण अ0 3-4)
विराट विश्वकर्मा परमेश्वर
विश्ववद्य पुराण में लिखा है कि आदि का विश्व धन्य मुखी, चर्तुभुजी और तीन नेत्रों वाला स्वयं प्रकट होता है अतः वह स्वयम्भू है।
तथा
नानारूपाणि समचैव तस्यैव विश्वकर्मणः।
विपस्यीयर्वमूलस्य जगतः कराणस्य च ।
द्विवाह चतुबाई द्विपंचवाहक तथा
एकास्यं चतुरात्यज्य पंचास्य रूपमस्यै
अर्थात इस उध्र्वम्ल जगत के कारण उस महाप्रभु विश्वकर्मा के अनेक रूप है। कोई दो बाहु कोई चतुबाहु और कोई मुख, चर्तुमुख और पञ्च मुख के उसके रूप है।
इस प्रकार
सारांश यह है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पदार्थों वाली होने में उस महारप्रभु विश्वकर्मा को चतुर्भुजी कहा गया है, पचम स्वयं प्रणव होने से।
और
तथा सृष्टि रचने के पांच मुख्य साधन हैं, आकाश, वायु, अग्नि जल और पृथ्वी इन ही पांचों तत्वों से ब्रह्म जगत् को उत्पन्न करता है। इसमें विश्वकर्मा प्रभु को पंचमुखी कहा गया है और त्रिकाल देशी होने से उसे शिवर को तीन नेत्रों वाला कहा गया है।
चर और अचर इन दो प्रकार की सृष्टि की रचना करने वाला होने से उसे दी बाहुओं वाला, दश दिशाओं की रचना करने वाला होने से इसे बाहुओं वाला तथा जगत का आदि मूल कारण होने से उस प्रभु विश्वकर्मा को स्वयम्भू कहा गया है।
तथा समस्त मनुष्यों को एक ही प्रकार का ज्ञान देने वाला होने से एक ख वाला और मनुष्यों के कल्याणार्थं चारों वेदों के द्वारा अपने जान को प्रका करने वाला होने से उस प्रभु विश्वकर्मा परमेश्वर को चतुर्मुखी कहा गया है।
साकार रूपाण्येतानि निर्गुणस्य पहा विधी ।
अनधानन्त वीर्यस्य ब्रह्मणी विश्व कर्मणः ।
अर्थ- निगुण महा ऐश्वर्यशाली पाप रहित आनन्त सामर्थ वाले भगवान विश्वकर्मा के, जिसकी ब्राह्म भी कहते हैं, यह दृश्या रचना रूप पदार्थ उसके शिल्प है।
श्रुति-विश्व मेव कर्मणा जायते स विश्वकर्मा
स परब्रह्मा स जगतकर्ता बभूवेति ।
(विश्व ब्रह्म पुराण)
अर्थात- उत्पत्ति पालन और प्रलाय करना ही कर्म है जिसका वही विश्वकर्मा वही ब्रह्म और वही सर्व जगतकर्ता एक परमेश्वर है। उसी की सबकी उपासना करनी चाहिये।
॥ इति ॥ ॥
हमारी नई वीडियो देखने के लिए यूट्यूब देखे तथा चैनल को सब्सक्राइब करे धन्यवाद
Coming Soon vishwakarma vaidik patrika