श्राद्ध तर्पण क्या है ?
लेखक : घेवरचन्द आर्य पाली
श्राद्ध और तर्पण का सीधा सा अर्थ है जो श्रद्धा पूर्वक कर्म किया जाये वह श्राद्ध है। और जिस कर्म से पितर तृप्त अर्थात संतुष्ट हो जावे वह तर्पण है।
गीता के अनुसार जीवित बृजुर्ग ही पितर होते है। गीता में अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से यही तो कहते है कि युद्ध में सारे स्वजन जब नहीं रहेंगे तव उन बृजुर्गो को वानप्रस्थियों को भोजन हेतु आश्रम व्यवस्था छोड़नी होगी। तथा जनहानि से कन्याओं को योग्य वरों के आभाव से वर्ण शंकरता पैदा होगी??
"संकरो नरकायेव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो लुप्त पिण्डोदकृया:……… . ??"
दिवंगत व्यक्ति (जीवात्मा) का मोक्ष श्राद्ध से सम्बंधित विषय ही नही है ? मोक्ष तो नितांत व्यक्तिगत है । बतोर गीता मनुष्य अपने भावी जीवन का स्वयं बीजप्रद पिता है । योग दर्शन के एवं वेद के अनुसार भावी जीवन में आयु-जाति [योनि ] एवं भोग कर्मो अनुसार मिलते है "अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्मः शुभ अशुभम " है ।
बेटा पंडित को ब्रह्म भोजन कराये न कराये कोई फर्क नही पड़ता। गरुड़ पुराण में जो बकवास लिखी है उसे तो कोई भी संभ्रांत व्यक्ति सुनना ही नही चाहता।
श्राद्ध के नाम पर वैदिक रुड़ी गत परम्परा एक अच्छा चिन्तन है। जिससे जीवित पितरो को सम्मान देना सेवा सुश्रुता करना आदि ही सच्चा श्राद्ध है ।
"व्रतेन दीक्षाम आप्नोति -दीक्षाम दक्षिणाम आप्नोति ।
दक्षिणाम श्रुद्धाम आप्नोति -श्रुद्धाम सत्यम आप्नोति।।"
गीता में भी योगीराज भगवान श्री कृष्ण जीवित पितरों के उदक पिंड की बात करते है।
श्राद्ध " श्रद्धा " से हैं।,
हमें परिवार में अपने से बड़ो के प्रति श्रद्धा का भाव रखना चाहिए, उनकी सेवा करना, आज्ञा पालन करना, आदि संस्कार दिये जाते हैं ।..
पितृ-ऋण से उऋण होने का यही उपाय हैं कि जीते जी हम माता-पिता, दादा-दादी, की सेवा करे । उनके अभाव में बड़े भाई भाभी जो भी परिवार में बुजुर्ग हो की आज्ञा पालन और समाज में उन्हे व उनके नाम को गौरवांवित करें । जीवित पितरों की सेवा सुश्रुषा और उनके साथ अच्छा व्यवहार करने वाले को आयु विद्या यश एवं बल की प्राप्ति होती है। वही जिस परिवार में स्वार्थ वस बुजुर्गो के साथ दुर्व्यवहार होता है, उनकी उपेक्षा की जाती है, उनको मानसिक दुःख पहुंचाया जाता है । वहां मृत्यु भय दुर्भिक्ष होते हैं।
इसलिए मन, वचन, कर्म से जीवित पितरों को सुख देते रहो। जैसे हमारे पितर जन अपनी सत्य शिक्षा देकर हमारा कल्याण करते हैं उसी प्रकार उनकी सेवा करना हमारा कर्तव्य है |
आज कल वेद ज्ञान के अभाव में अविद्या, अन्धकार के कारण लोग श्राद्ध के सच्चे स्वरूप को ही भूल गये है। और माता-पिता के मर जाने पर उनको पानी देकर तर्पण और पिण्ड-दान तथा ब्राह्मण को भोजन कराकर श्राद्ध करना ही धर्म समझ रहे हैं ।
प्रायः देखा जाता है कि लोग देवता स्वरूप जीवित माता पिता की सेवा में तो घोर उपेक्षा करते हैं। और मरने पर गंगाजी में पहुंचाने को ही तर्पण व श्राद्ध मानते हैं।
इसी पर किसी अनुभवी कवि ने ठीक ही कहा है-
जियत मात-पिता से दंगम दंगा।
मरे मात पिता को पहुंचाये गंगा।।
अब आप ही विचार करें। इससे क्या लाभ ? क्योंकि प्रत्येक प्राणी अपने-अपने कर्मानुसार मरने पर उत्तम, मध्यम, निकृष्ट योनि में जन्म लेता है। जिसको उसी प्रकार का भोजन भगवान् अपनी न्याय व्यवस्था के अनुसार उपलब्ध कराता है। इसलिए अपने पितरों की आत्मा को शान्त व तृप्त करना चाहते हो तो अपने जीवित माता-पिता व गुरुजनों की श्रद्धा से सेवा करके उन्हें तृप्त करो। यह वास्तव में सच्चा व प्रत्यक्ष श्राद्ध व तर्पण है।
महर्षि दयानन्द जी महाराज ने श्राद्ध और तर्पण शब्द पर अपने अमर ग्रन्थ जगत विख्यात सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में बहुत ही सुन्दर प्रकाश डाला है।
''ऋषियज्ञं देवयज्ञं भूतयज्ञ व सर्वदा।
नृयज्ञं पितृयज्ञं च यथाशक्तिर्न हापयेत्।।
मनु. 3/70
अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञश्च तर्पणम् ।
होमो देवो वलिभूतो नृपयज्ञोऽतिथिपूजनम्।।
मनु. 3/70
अर्थात् दो यज्ञ, ब्रह्मचर्य में लिख आए। एक- वेद आदि शास्त्रों का पढ़ना, पढ़ाना, संध्या उपासना, योग का अभ्यास।
दूसरा- देवयज्ञ अर्थात् विद्वानों का संग, पवित्रता, दिव्य गुणों का धारण, करने का दायित्व, विद्या की उन्नति करना है ये दोनों यज्ञ प्रातः सायं करने होते हैं।
तीसरा- पितृ-यज्ञ अर्थात् जिसमें देव विद्वान् ऋषि पढ़ाने वाले पितर, माता पिता आदि वृद्ध ज्ञानी और परम योगियों की सेवा करनी चाहिए। पितृ-यज्ञ के दो भेद हैं- एक श्राद्ध और दूसरा तर्पण।
श्राद्ध अर्थात् 'श्रत' सत्य का नाम है श्रत् सत्यं दधाति यथा क्रियथा सा श्रद्धा, श्रद्धया सत् क्रियते तत् श्राद्धं | अर्थात् जिस क्रिया से सत्य का ग्रहण किया जाए उसका नाम श्राद्ध है। और 'तृप्यान्ति तर्पयन्ति येन पितृन तत्तर्पणम्' अर्थात् जिस कर्म से तृप्त अर्थात् विद्यमान माता पिता आदि जीवित पितर प्रसन्न हों और प्रसन्न किए जाये उसका नाम तर्पण है। परन्तु यह जीवितों के लिए है, मृतकों के लिए नहीं।
पंच महायज्ञों में पितृ-यज्ञ :- प्रत्येक ब्रह्मचारी व गृहस्थ का परम कर्तव्य बताया है जो कि जीवित माता-पिता, दादा-दादी एवं आचार्य, गुरुजनों आदि अपने बड़ों की नित्य श्रद्धा पूर्वक भक्ति भाव से सेवा करें। जिन माता-पिता ने अनेक प्रकार से कष्ट उठा कर हमारा पालन पोषण किया, उनके ऋण से उऋण होना तो असम्भव है। जो लोग अपने इस कार्य में प्रमाद आलस्य करते हैं, वे निश्चय ही नरक गामी होते हैं, अतः प्रत्येक गृहस्थ का परम कर्त्तव्य है कि वह अपने अपने जीवित माता - पिता व गुरुजनों को अपनी आत्मिक श्रद्धा द्वारा सेवा कर उन्हें तृप्त करें।
इसी को नीतिकारों ने श्राद्ध कहा है और अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सेवा करने को ही तर्पण कहा है।
प्रायः देखा जाता है कि अविद्या अन्धकार के कारण लोग श्राद्ध तर्पण का अर्थ ही भूल गए हैं, और माता पिता के मरने पर उनकी हड्डियों को हरिद्वार, पुष्कर, गया आदि कल्पित तीर्थ स्थानों पर जाकर पानी तर्पण और पिण्ड-दान तथा नामधारी ब्राह्मणों को भोजन करा कर श्राद्ध करते हैं। परन्तु यह सब व्यर्थ है। पञ्च महायज्ञ ही रोज श्राद्ध है?
हमारी सनातन वैदिक परम्परा पञ्च महायज्ञ विधि में नित्य ही पितृ - ब्रह्म - देव -अतिथि बालिवेश्य देव यज्ञ का विधान है। यानि जीवित पितरों की सेवा सम्मान ईश्वर की उपासना से पहले फिर ब्रह्म उपासना, अग्निहोत्र आदि परोपकारी कार्य अतिथि सत्कार भी यज्ञ है। साथ ही समस्त मूक प्राणियों गाय , कुत्ते, चील-कोए चींटियो का भोजन भाग निकलना भी सनातन परिवारों में परम्परा रही है।
वेद उपनिषद रामायण महाभारत आदि किसी भी धर्म शास्त्र में श्राद्ध के नाम पर तथाकथित नाम धारी पंडितों को हलवा पूड़ी खिलाना या जल में खड़े होकर मृतकों के नाम से जल अर्पित करने का कोई नियम विधान नहीं लिखा है।
इसलिए हमें भी अपने सभी जीवित पितरों को तृप्त करके अपना मनुष्य जन्म सार्थक करना चाहिए। यही सच्चा श्राद्ध है । याद रखे यदि आप जीवित पितरों की अपेक्षा करके मृतक पितरों के नाम से ब्राह्मणों को भोजन करवाते हैं तो आप गीता शास्त्र विरूद्ध कर्म कर रहे हैं । क्यों कि गीता के अनुसार भोजन की आवश्यकता जिवीतो को ही है मृतकों को नहीं। हिन्दू धर्म में वैसे भी पुनर्जन्म का सिद्धांत शास्वत सत्य है। जो जन्मा है वह अवश्य मरेगा। एवं जो मर गया है उसका पुनर्जन्म अवश्य होगा। इस व्यवस्था अनुसार हमारे जो पूर्वज मर गये उनका उनके कर्मों अनुसार किसी योनि में पुनर्जन्म हो चुका है। तो अब उनके नाम पर पंडितों को भोजन खिलाना निर्थक है।
अब लेते हैं तर्पण का अर्थ इसका मतलब होता है तृप्त करना। या संतुष्ट करना। यह कर्म भी केवल जीवितो के लिए उचित है । क्यों कि जीवित व्यक्ति ही किसी की सेवा से संतुष्ट होता है। और खुश होकर सेवा करने वाले को आर्शीवाद देता है। इसलिए श्राद्ध तर्पण के नाम पर जल में खड़े होकर कलश से जल चढ़ाने का दिखावा करना शास्त्र विरूद्ध है। यह केवल तथाकथित पेटू ब्राह्मणों का श्राद्ध के नाम से हलवा पूड़ी खाने का ढोंग मात्र है। इससे मृतक व्यक्ति का कोई सम्बन्ध नहीं है।
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